वेदोऽखिलो धर्ममूलम्
महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना । धियो विश्वा वि राजति ।।

विकासशील भारत में औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप ग्रामीण भारत के लोग महानगरों तथा नगरों की ओर लोग जीविकोपार्जन के लिए यहाँ आकर बसे हैं। किन्तु महानगरों के रहन सहन में आजकल युवाओं में बढ़ती हुई आपराधिक प्रवृति एवं संस्कार हीनता उनकी चिन्ता का विषय है, और वे चाहते हैं कि उच्च व्यावसायिक ज्ञान के साथ साथ बच्चों में नैतिक मूल्यों के प्रति श्रद्धाभाव रहे और सनातन संस्कृति में उनकी रुचि बनी रहे। प्रवासी समाज की इन अपेक्षाओं पर गम्भीरता से विचारोपरान्त महर्षि पाणिनि धर्मार्थ ट्रस्ट ने एक गुरुकुल पद्धति से विद्यालय प्रारम्भ करने का निर्णय लिया। जिसमें उन सभी अलग अलग क्षेत्रों की संस्कृति का आपसी समन्वय हो सके एवं उनके बच्चों की शिक्षा दीक्षा सुचारू रूप से चल सके और वे संस्कारित हो सकें। महर्षि पाणिनि धर्मार्थ ट्रस्ट (रजि०) द्वारा निःशुल्क रूप से संचालित महर्षि पाणिनि वेद-वेदाङ्ग विद्यापीठ (गुरुकुल) ग्रेटर नोएडा इसी का एक मूर्त रूप है।
भारत के विषय में यदि हम विचार करते हैं तो भारत की सांस्कृतिक विरासत और इतिहास जिस भाषा में है वह संस्कृत है। वेद, उपनिषद्, आरण्यक, पुराण, धर्म, ग्रंथ, रामायण, महाभारत, नाट्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कामसूत्र अष्टाध्यायी आदि भारतीय ज्ञान मीमांसा के अनुपम ग्रंथ हैं भारत की सांस्कृतिक धरोहर हजारों वर्षों से अटूट चली आ रही है। जैसे हिमालय से गंगा निकलती है और निरंतर बहती चली जाती है, उसी प्रकार हिमालय से ही हमारे सांस्कृतिक, दार्शनिक स्रोत उभरते हैं। संस्कृत भाषा की शक्ति से भयभीत होकर ही मैकाले ने इस भाषा को समाज से दूर करने का कुत्सित षड्यंत्र किया और भारतीय समाज उसके कुचक्र में फँस गया। आज जिस प्रकार का वातावरण दिखाई दे रहा उसका मूल कारण हमारी अपनी भाषा और संस्कृति से दूर होना है। अगर आज भी हमारा ध्यान इस ओर नहीं गया तो स्थिति और भी भयावह हो सकती है, क्योंकि प्रत्येक भाषा का अपना संस्कार होता है। भाषा में उस देश की मिट्टी (संस्कृति, सभ्यता) की खुशबू होती है और वह जहाँ जहाँ फैलती है, समाज के मन मस्तिष्क को अपनी महक से आप्लावित करती है। परन्तु आज समाज अपने देश की खुशबू भूल जाता है। उसे अपने देश की मिट्टी से बदबू आने लगती है। वैश्वीकरण की दुहाई देकर हम भले ही इससे मुँह मोड़ ले परंतु यह स्थिति समाज को देश की मिट्टी (संस्कृति, सभ्यता) से दूर ले जा रही है।

First slide

न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्ग नाऽपुनर्भवम् ।पुनर्भवम।
कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामार्तिनाशनम् ।।

मुझे पृथ्वी का समृद्ध राज्य नहीं चाहिए, और मुझे मोक्ष भी नहीं चाहिए। मेरी तो यही उत्कृष्ट कामना है कि दुःखों में तपाए हुए प्राणियों का कष्ट दूर करूँ। भारतीय मनिषियों की हमेशा से ही यह धारणा रही है कि शिक्षा सामाजिक जीवन की आवश्यकता के अनुसार होनी चाहिए। शिक्षा का सामाजिक परिस्थितियों से सामंजस्य होना चाहिए। इसलिए शिक्षा पद्धतियों का भी देश, काल, परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनशील होना आवश्यक है, साथ ही राष्ट्रीय संस्कृति, राष्ट्रीय मूल्यों के साथ-साथ नैतिक मूल्यों के प्रति आदरभाव भी होना आवश्यक है। प्रचलित शिक्षा पद्धति के प्रति अध्यापकों, शिक्षाशास्त्रियों एवं दार्शनिक विचारकों के मन में उत्पन्न होने वाले असंतोष से ही हमें आधुनिक शिक्षा पद्धति से समन्वित गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली प्रारंभ करने की प्रेरणा से यह प्रयास किया है।

आचार्य रविकान्त दीक्षित
संस्थापक
महर्षि पाणिनि वेद-वेदाङ्ग विद्यापीठ (गुरुकुल)

उद्देश्य

गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति में निर्धारित शिक्षा के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए प्रबंधन समिति ने शिक्षा के उद्देश्य निम्न प्रकार स्वीकार किए हैं.

  • वैदिक वाङ्मय का अध्ययन एवं अनुशीलन
  • शारीरिक विकास चारित्रिक विकास
  • मानवीय मूल्यों की अवधारणा को विकसित करना और आचरण में उतारना
  • वैयक्तिक और सामाजिक विकास करना
  • आध्यात्मिक विकास करसे कर रहे हैं।
  • संस्कृति के विकास के लिए शिक्षा
  • प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए शिक्षा (पंचमहाभूतों का महत्व व संरक्षण एवं संवर्धन)
  • गोपालन और पशु पक्षी एवं जीव जगत का प्रारम्भिक परिचय रुकुल
  • कृषि और वानस्पतिक ज्ञान (उत्पादन और उपयोग) पादप जगत का सामान्य परिचय

लक्ष्य

महर्षि पाणिनि वेद-वेदांग विद्यापीठ गुरुकुल की शिक्षा का उद्देश्य वर्तमान सामाजिक परिवर्तनों पर विचार करते समय यहाँ की संस्कृति के तत्वों की विवेचना करके उसके उपयोगी और परिवर्तनशील तत्वों (नैतिक मूल्यों) की ओर विशेष रुप से ध्यान देते हुए संस्कृति के मूलभूत तत्वों की उपयोगिता और उनके व्यवहारिक पक्ष पर बल देना है। शिक्षा से हमारा उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए उनमें सीखने की उत्सुकता और सरस जीवन एवं सामुदायिक जीवन के विकास के लिए भी भावनात्मक प्रवृत्तियों का होना परम आवश्यक है।
सामान्यतया शिक्षा का प्रमुख कार्य शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण होता है जिसमें साधन की अपेक्षा साध्य महत्वपूर्ण है। जिसमें शैक्षिक व्यवस्थाएं, कार्यक्रम, कार्यशाला आदि साध्य को ध्यान में रखकर किया गया हो लेकिन खेद का विषय यह है कि आज शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक विकास के नाम पर चल रही अनेक योजनाओं के द्वारा केवल साधनों का ही विकास हो रहा है। साध्य गौण हो गया है। अधिक महत्व विद्यालय, वातावरण, भवन, साज सज्जा, शिक्षण विधि और पाठ योजना आदि को दिया जा रहा है। मूल सिद्धांत से हटकर अधिकांश शक्ति, साधन और समय का अपव्यय हो रहा है। शिक्षा इस प्रकार की विभिन्न व्यवस्थाओं के चक्रव्यूह में अपने मूल उद्देश्य से निरंतर दूर होती जा रही है। जो वास्तविक तौर पर केवल गुरु और शिष्य परंपरा में ही संभव है, जिसका दृष्टिकोण समन्वयात्मक हो।
शिक्षा का उद्देश्य पाने के लिए शिक्षक का व्यवस्थित ज्ञान होना आवश्यक है। शिक्षक का आचरण और अनुशासन भी अनुकरणीय होना चाहिए। शिक्षक साध्य को ध्यान में रखते हुए ही साधन की सृष्टि करता है। गुरुकुलीय पद्धति में हम इसी प्रकार के साध्य में विश्वास रखते हुए महर्षि पाणिनि वेद-वेदाङ्ग विद्यापीठ (गुरुकुल) का संचालन निःशुल्क रूप से कर रहे हैं।