गुरु पूर्णिमा
सनातन धर्म
शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को महाभारत के रचयिता वेद व्यास का
जन्म हुआ था। उन्होंने कालांतर में चारों वेदों का विस्तार करने के उपरांत महाभारत, 18 पुराण, 18 उपपुराण और ब्रह्मसूत्र की रचना की। महर्षि
वेद व्यास जी ही संसार के गुरु है। इसीलिए आषाढ़ (जुलाई-अगस्त) के महीने में
ग्रीष्म संक्रांति के बाद पहली पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में जाना जाता है।
इस दिन गुरु की पूजा करने की परंपरा प्राचीन काल से ही भारत वर्ष में विद्यमान रही
है। इसी कारण से धार्मिक रूप से, इस दिन को वह समय
माना जाता है जब साधक, गुरु के प्रति अपना आभार प्रकट करते हैं और उनकी कृपा
प्राप्त करते हैं। गुरु को बहुत ही महान माना जाता है। गुरौ न प्राप्यते
यत्तन्नान्यत्रापि हि लभ्यते। गुरुप्रसादात
सर्वं तु प्राप्नोत्येव न संशयः॥ अर्थात - गुरु के
द्वारा जो प्राप्त नहीं होता, वह अन्यत्र भी नहीं मिलता। गुरु कृपा से
निस्संदेह (मनुष्य) सभी कुछ प्राप्त कर ही लेता है।
अषाढ़ माह की
पूर्णिमा को 'गुरु पूर्णिमा पर्व’ के रूप में मनाने का एक और कारण यह है
कि शिष्य अपने गुरु के प्रति समर्पण और कृतज्ञता प्रकट करते हैं। इस दिन शिष्य
अपने गुरु के समीप जाकर पूजा अर्चना करते हैं। श्रेष्ठ गुरु अपनी शिष्य परंपरा में
नए शिष्यों को दीक्षित करते हैं। क्योंकि आध्यात्मिक उन्नति गुरु के बिना संभव
नहीं है। इसीलिए प्राचीन काल से ही भारत में गुरुओं को सबसे ऊंचा स्थान प्राप्त
है। गुरु को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला बताया गया है। शास्त्रों में
गुरु की महिमा का बखान मिलता है। ''अज्ञान तिमिरांधश्य
ज्ञानांजन शलाकया,
चक्षुन्मीलितम तस्मै श्री गुरुवै नम:।। अंधकार को हटाकर प्रकाश की ओर ले जाने वाले को ही 'गुरु' कहा जाता है।
गुरु की महिमा
अपार है। उसे शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता। शास्त्रों में गुरु शब्द में योजित
वर्णों में ‘गु’ का अर्थ ‘अंधकार या मूल अज्ञान’ और ‘रू’ का अर्थ ‘उसका निरोधक’
बताया गया है, जिसका अर्थ ‘अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला’ अर्थात
अज्ञान को मिटाकर ज्ञान का मार्ग दिखाने वाला ‘गुरु’ होता है। गुरु को भगवान से भी
बढ़कर दर्जा दिया गया है। अन्य विश्व प्रसिद्ध श्लोक है जिसमें गुरु के महत्व को
ईश्वर के समान माना है - गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरु:
साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।। साक्षात परब्रह्म गुरु को प्रणाम
करता हूँ। गुरु को ब्रह्मा कहा गया है की जिस प्रकार ब्रह्मा सकल स्रष्टि को जन्म
देता है उसी प्रकार गुरु अपने शिष्य को ग्रहण करके उसमे संस्कारों का प्रत्यारोपण
करके उसको नया जन्म देता है, उसे द्विज (द्वि मतलब दूसरा और ज मतलब
जन्म ) बनाता है। गुरु अपने शिष्य का समस्त भार अपने ऊपर ले लेता है इस लिए गुरु
को विष्णु कहा गया है। भगवान् शंकर इस स्रष्टि का विनाश करते है, उन्ही की भाँति गुरु
अपने शिष्य में निहित समस्त विकारों का विनाश कर देता है एक प्रकार से वह अपने
शिष्य के वर्तमान स्वरूप को समूल नष्ट करके उसका पुनः निर्माण कर देता है इस लिए
गुरु को महेश या शिव कहा गया है और एक पूर्ण सतगुरु ही किसी प्राणी को आवागमन के
चक्कर से मुक्त कर सकता है इसलिए गुरु को साक्षात् पार ब्रह्मा अथवा परमेश्वर कहा
गया है।
वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, सन्त, मुनि, कवि आदि सब गुरु की अपार महिमा का बखान करते हैं। सन्त कबीर कहते हैं:- गुरु
गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय।। अर्थात, गुरु और गोविन्द (भगवान) एक साथ खड़े हों
तो किसे प्रणाम करना चाहिए,
गुरु को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में
गुरु के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है, जिनकी कृपा रूपी
प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसके साथ ही संत कबीर
गुरु की अपार महिमा बतलाते हुए कहते हैं - सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड। तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस
ब्रह्मणड।। अर्थात् सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रहाण्डों में सद्गुरु के समान हितकारी आप किसी को
नहीं पायेंगे।
संत शिरोमणि
तुलसीदास ने भी गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ माना है। वे रामचरित मानस में गुरु के
लिखते हैं: गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई। जों बिरंचि संकर सम होई।। अर्थात्, भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना
भव सागर पार नहीं कर सकता। वे गुरू/शिक्षक को मनुष्य रूप में नारायण यानी भगवान ही
मानते हैं। वे रामचरितमानस में लिखते हैं- बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप
हरि। महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।। अर्थात्, गुरु मनुष्य रूप
में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने
पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार
का नाश हो जाता है। गुरु हमारा सदैव हितैषी व सच्चा मार्गदर्शी होता है। वह हमेशा
हमारे कल्याण के बारे में सोचता है और एक अच्छे मार्ग पर चलने की पे्ररणा देता है।
गुरु चाहे कितना ही कठोर क्यों न हो, उसका एकमात्र
ध्येय अपने शिक्षार्थी यानी शिष्य का कल्याण करने का होता है। गुरु हमें एक सच्चा
इंसान यानी श्रेष्ठ इंसान बनाता है। हमारे अवगुणों को समाप्त करने की हरसंभव कोशिश
करता है। इस सन्दर्भ में संत कबीर ने गुरु एक कुम्हार के समान है और शिष्य एक घड़े
के समान होता है। जिस प्रकार कुम्हार कच्चे घड़े के अन्दर हाथ डालकर, उसे अन्दर से सहारा देते हुए हल्की-हल्की चोट मारते हुए उसे आकर्षक रूप देता
है, उसी प्रकार एक गुरु अपने शिष्य को एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व
में परिवर्तन करता है।
सन्त कहते हैं कि
गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना
शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने
गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता
है। सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है।
शरणागत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ
धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है। इसलिए हमें अपने गुरू का पूर्ण
सम्मान करना चाहिए और उनके द्वारा दिए जाने वाले ज्ञान का भलीभांति अनुसरण करना
चाहिए। कोई भी ऐसा आचरण कदापि नहीं करना चाहिए, जिससे गुरु यानी
शिक्षक की मर्यादा अर्थात छवि को धक्का लगता हो। इस सन्दर्भ में महर्षि मनु अपनी
अमर कृति में बतलाते हैं- ‘गुरु के समीप एक शिष्य का आसन सर्वदा अपने गुरू की
अपेक्षा नीचे होना चाहिए। गुरु की पीठ पीछे बुराई या निन्दा न करें और न ही उनके
किसी आचरण या वक्तव्य की नकल करें। गुरु की अनुपस्थिति में शिष्य को अपने गुरु का
नाम शिष्टतापूर्वक लेना चाहिए और गुरु की बुराई जहां कहीं भी हो रही हो, वह या तो वहां से चला जााए, या फिर कानों में उंगली डाल डाल ले। गुरु
जहां कहीं भी मिलें, निष्ठापूर्वक शिष्य को अपने गुरु के चरण-स्पर्श करने चाहिए।
लोगो के विचार में
यह धारणा द्रढ. रहती है की गुरू एक ही हो सकता है परन्तु शास्त्रों के गहन अध्ययन से
तथा जीवन में घटनाओं के अनुभव से यह पता चलता है गुरू एक नहीं अनेक हो सकते है -
श्रीमद्भागवत के अनुसार परमावधूत श्री दत्तात्रेय जी ने 24 गुरू किये थे। कुलार्णव
तंत्र के अनुसार गुरू छ: प्रकार के होते है
- प्रेरक: सूचाकश्चैव वाचको दर्शकश्ताथा। शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरूव: स्मृता:।। प्रेरणा देने वाला, सूचना, देने वाला, वक्ता, दर्शक, ज्ञाता शिक्षा
देनेवाला, आत्मवोध कराने वाला। इस प्रकार के छह गुरु
होते है। व्यवहारिक जगत में प्रथम गुरु माता-पिता होते हैं।
पिता से भी अधिक
सर्वमान्यहै कि माता ही प्रथम गुरु होती है। अत: नारी समाज की शिक्षा-दीक्षा
नैतिकता पूर्ण होनी चाहिए। जिससे कि माँ अपने
बच्चो को उचित शिक्षा प्रदानकर आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति का मार्ग प्रसस्त करे। धार्मिक
ग्रंथो में एसे अनेक उदहारण मिलते है- माता मदालसा, गोपीचंद की माता, भक्त प्रह्लाद
एवं ध्रुव की माताओं ने अपनी प्रतिभा एवं धर्मपूर्ण आचरण एवं ज्ञान की प्रेरणा से
अपने पुत्रों को भवसागर से पार करा दिया।
अगर आज के सन्दर्भ में गुरु-शिष्य के सम्बंध देखें तो बड़ा दुःख होता है। बेहद
विडम्बना का विषय है कि आज गुरु-शिष्य के बीच वो मर्यादित एवं स्नेहमयी सम्बंध
देखने को सहज नहीं मिलते, जो अतीत में भारतीय संस्कृति की पहचान होते थे। इसके
कारण चाहे जो भी हों। लेकिन, हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जब तक
गुरू के प्रति सच्ची श्रद्धा व निष्ठा नहीं होगी, तब तक हमें सच्चे
ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी और हमें सत्मार्ग कभी हासिल नहीं होगा। इसी सन्दर्भ
में भगवान श्रीकृष्ण अलौकिक कृति गीता में अपने सखा अर्जुन को कहते हैं- सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यिामाम शुचः।। अर्थात् सभी
साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणागत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी
पापों का नाश कर देंगे।
गुरु पूर्णिमा पर्व पर सभी गुरुजनों के चरणों में कोटि कोटि नमन।